Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद




ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचना चाहिए था, वह मचा और महीनों तक मचता रहा। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिये गोबर को खोजते फिरते थें। भोला ने क़सम खायी कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, वह अब टूट गयी थी। अब वह अपनी गाय के दाम लेंगे और नक़द और इसमें विलम्ब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँववालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उसका हुक़्क़ा नहीं पीता, न उसके घर का पानी पीता है। पानी बन्द कर देने की कुछ बातचीत थी; लेकिन धनिया का चंडी-रूप सब देख चुके थे; इसलिये किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना-सुनाकर कह दिया -- किसी ने उसे पानी भरने से रोका, तो उसका और अपना ख़ून एक कर देगी।
इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिये। सबसे दुखी है झुनिया, जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा है, और गोबर की कोई खोज-ख़बर न मिलना इस दुःख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाये घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचाना मुश्किल हो जाय। दिन-भर घर के धन्धे करती रहती है और जब अवसर पाती है, रो लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकती; क्योंकि कोई उसके हाथ का खायेगा नहीं, बाक़ी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं, यही कुत्सा होने लगती है। एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पण्डित दातादीन मिल गये। धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतराकर निकल जाय; पर पण्डितजी छेड़ने का अवसर पाकर कब चूकनेवाले थे। छेड़ ही तो दिया -- गोबर का कुछ सर-सन्देश मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी।
धनिया के मन में स्वयम् यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली -- बुरे दिन आते हैं बाबा, तो आदमी की मति फिर जाती है, और क्या कहूँ।
दातादीन बोले -- तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती है, तो आदमी उसे निकालकर फेंक देता है, और दूध पी जाता है। सोचो, कितनी बदनामी और जग-हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहती, तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल-चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगे, बाम्हनों को भोज न दोगे, कैसे उद्धार होगा? उसे घर में न रखते, तो कुछ न होता। होरी तो पागल है ही, तू कैसे धोखा खा गयी।

दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता था; पर वह तिलक लगाता था, पोथी-पत्रे बाँचता था, कथा-भागवत कहता था, धर्म-संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में ज़रा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान-पूजा कर के अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थी, झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपित्त आयी है। उसे न जाने कैसे दया आ गयी, नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देती, तो क्यों इतना उपहास होता; लेकिन यह भय भी होता था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा और ठिकाना कहाँ था। एक प्राण का मूल्य देकर -- एक नहीं दो प्राणों का -- वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक है, वह घनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! और फिर झुनिया की नम्रता और दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। यह जली-भुनी बाहर से आती; पर ज्योंही झुनिया लोटे का पानी लाकर रख देती और उसके पाँव दबाने लगती, उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा और दुःख से आप दबी हुई है, उसे और क्या दबाये, मरे को क्या मारे। उसने तीव्र स्वर में कहा -- हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज, कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते। ब्याहता न सही; पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देती। वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं, तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है, नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं।

दातादीन हार माननेवाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँ, वहाँ की यहाँ, यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थे, उसमें जान-जोख़िम था; पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। ज़मींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थी, क़ुर्क़ी आती, तो कुएँ में गिरने चलते, नोखेराम के किये कुछ न बनता; मगर असामियों को सूद पर रुपए उधार देते थे। किसी स्त्री को कोई आभूषण बनवाना है, दातादीन उसकी सेवा के लिए हाज़िर हैं। शादी-ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है, यश भी मिलता है, दिक्षणा भी मिलती है। बीमारी में दवा-दारू भी करते हैं, झाड़-फूँक भी, जैसी मरीज़ की इच्छा हो। और सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं, बालकों में बालक और बूढ़ों में बूढ़े। चोर के भी मित्र हैं और साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं है; पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार-बार धोखा खाकर भी उन्हीं की शरण जाते हैं। सिर और दाढ़ी हिलाकर बोले -- यह तू ठीक कहती है धनिया! धमार्त्मा लोगों का यही धरम है; लेकिन लोक-रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है।
इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते; पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक दूसरे से लड़ाकर रक़में मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! ग़रीबों को दस-दस, पाँच-पाँच क़रज़ देकर उन्होंने कई हज़ार की सम्पत्ति बना ली थी। फ़सल की चीज़ें असामियों से लेकर कचहरी और पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाक़े भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़ा, तो वह दारोग़ा गंडासिंह थे, जो हाल में इस इलाक़े में आये थे। परमार्थी भी थे। बुख़ार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँटकर यश कमाते थे, कोई बीमार आराम हो, तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे-मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी-ब्याह में अपनी पालकी, क़ालीन, और महफ़िल के सामान मँगनी देकर लोगों का उबार कर देते थे। मौक़ा पाकर न चूकते थे, पर जिसका खाते थे, उसका काम भी करते थे। बोले -- यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरी?
होरी ने पीछे फिरकर पूछा -- तुमने क्या कहा लाला -- मैंने सुना नहीं।

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